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मन नहीं लगता / नरेन्द्र दीपक
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मन नहीं लगता
बात यह किससे कहें हम
किस जगह जाकर रहें हम
कूल पर तो मन नहीं लगता
धार में बहते नहीं बनता
इस क़दर घेरे विवषताएँ
साँस तक लेना हुआ दूभर
यूँ हुई असहाय यह पीढ़ी
ठीक जैसे बिना छत के घर
छटपटा कर दिन गुज़ारें
रात भर चीख़ें पुकारें
रोषनी मन को नहीं भाती
और तम सहते नहीं बनता
दर्द ये कहते नहीं बनता
सुलगत चिनगारियाँ मन में
तन मगर उल्लास ओढ़े है
तृप्ति का हर घट स्वयं में ही
एक गहरी प्यास ओढ़े है
दोहरे व्यक्तित्व
कौन अब किसको पुकारे
बोलने को जी नहीं करता
मौन भी रहते नहीं बनता
दर्द ये कहते नहीं बनता।