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मुक्ति / सुरेश ऋतुपर्ण

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कल जब मैं नहीं रहूँगा
और मेरे शब्द रहेंगे
तब उनके अर्थ भी बदल जाएँगे
वे मेरी छाया से मुक्त हो चुके होंगे

मेरे राग-द्वेष
मेरी प्रतिबद्धता
और मेरी शरारतों से परे
सीप में मोती की तरह
खुल जाएँगे उनके अर्थ

कल जब मैं नहीं रहूँगा तब
मेरे शब्दों को ढाल बना
स्वार्थों की लड़ाई लड़ेंगे लोग
मेरे शब्दों की ओट में
खेलेंगे
लुका-छिपी का खेल

तब मैं अपने शब्दों में कहीं नहीं हूँगा
और यही मेरी मुक्ति का क्षण होगा ।