तारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियाँ
मैंने कैनवास में बिख़ेरी थीं मगर
क्या करूँ लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!
मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूँ
और उस गिरजे की ख़िदमत में गुजारूँ
मैं शबोरोज जहाँ-
रात को साया समझते हैं सभी,
दिन को सराबों का सफ़र!
उनको माद्दे की हक़ीकत तो नज़र आती नहीं
मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तख़य्युल है
ये सब वाहमा हैं!
मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफ़सील तो देखो
मेरी तख़लीक ख़ुदाबंद के उस पेड़ से
कुछ कम तो नहीं है!
उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,
पेड़ उस बीज की ही कोख में था,
और नुमायाँ भी हुआ
जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर ज़र्द हुआ
उस मुसव्विर ने कहीं दख़ल दिया था,
जो हुआ, सो हुआ-
मैंने हर शाख़ पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,
उस हक़ीकत को बयाँ करने में
जो हुस्ने हक़ीकत है असल में
उन दरख़्तों का ये संभला हुआ क़द तो देखो
कैसे ख़ुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मग़रूर नहीं
इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूँ!
देखो तांबे की तरह कैसे दहकते हैं ख़िजां के पत्ते,
कोयला खदानों में झौंके हुए मज़दूरों की शक्लें
लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं
आलुओं पर जो गुज़र करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स
एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!
मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी
अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-
रोलां वह चिट्ठीरसां
और वो स्कूल में पढ़ता लड़का
ज़र्द खातून पड़ोसन थी मेरी-
फ़ानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें
कैनवास पे तवारीख़ की उम्रें दी हैं!
सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने
मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-
उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कानों में,
उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख़-पुकार
कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,
कान ही काट दिया है मैंने!
मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,
तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,
आसमाँ उसका बिछाने के लिए-
चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!
मैं यहाँ रेमी में हूं
सेंटरेमी के दवाख़ाने में थोड़ी-सी
मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूँ!
उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-
मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!
(गॉग की ख्यात पेंटिंग "Tree and Man" (in front of the Asylum of Saint-Paul, St. Rémy )