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कविता की समझ / श्रीविलास सिंह

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कविता की समझ
बहुत धीरे-धीरे आई
पर यह बहुत जल्दी आ गया समझ में
कि कविता नहीं है सिर्फ़
शब्दों का जोड़ भर,
गणित की तरह कि
दो और दो जोड़कर
कर दिया जाए चार ।

कविता की दुनिया में नहीं चलते
गणित के नियम ।

और सच कहूँ तो किसी नियम से बँध नहीं पाई है कविता,
जैसे ऊँचे पर्वत से निसृत नदी
बहती है अपने ही वेग से बनाती अपना पथ,
कविता भी है वैसी ही विपथगा ।

नहीं हो सकती कोई रेखा निश्चित
चिड़ियों की उड़ने के लिए,
नहीं बाँधी जा सकती है बाँसुरी की धुन
और टूटता हुआ तारा भला गिरेगा किस आँगन में
कौन बता सकता है,
वैसे ही कविता कब अँकुरित होगी
मौन के किस कोलाहल में
कौन जाने
छिपा होता है यह रहस्य अनागत के गर्भ में ।

समझने को कविता
समझनी पड़ती है पीड़ा की यात्रा-कथा
और आँखों के आकाश पर सजे तारों की तरलता में
डूबना पड़ता है ।

जीवन की यातनाओं के अग्निगर्भ से उपजी याज्ञसेनी के
केश प्रक्षालित करने को चाहिए होता है रक्त
दुःशासन के वक्ष का ।

धरती का क्लान्त हृदय धीरे से धड़क उठता है
छूकर कविता की स्निग्ध उँगलियाँ ।

कविता रहेगी धरती के साथ तब भी जब
मर चुके होंगे सारे कवि और जल चुके होंगे
सारे महाग्रन्थ,
शुरू होती है वहीं से कविता की परिधि
आच्छादित करती धरती के वृत को,
जहाँ समाप्त हो जाती है कवि की लँगड़ी कल्पना की दृष्टि ।

कविता की समझ
आती है बहुत धीरे-धीरे,
जैसे बिना पदचाप के
धीरे से कब उतर आए प्रेम
हृदय के आँगन में
क्या मालूम ?