भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमने मुझे निहारा / उद्‌भ्रान्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:05, 3 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उद्‌भ्रान्त |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक अजूबा गन्ध
लग गई मन में आज महकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

धूप-दीप जल उठे
प्राण के कोने-कोने में
पलक झपकते —
चितवन बदली
जादू-टोने में

एक अजूबा रंग
लग गया मन में आज दहकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा

सन्नाटे में लगी तैरने
एक मधुर हलचल
खटकाए, हौले से कोई
यादों की साँकल

एक अजूबा छन्द
लग गया मन में आज चहकने
ज्योंही तुमने मुझे निहारा