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जीवन भी कविता ही है / कविता भट्ट

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किसी भी कविता में
दो पक्ष होते हैं-
कलापक्ष तथा भावपक्ष;
कलापक्ष का निर्वाह होता है-
व्याकरण और गणित द्वारा
जो होता है- नितान्त यांत्रिक।
भावपक्ष असीम है
यह मन को प्रतिबिम्बित करता है
मन- ब्रह्माण्ड की प्रतिच्छाया है।
संवेदनाओं व उनकी अभिव्यक्ति
की अनन्त आकाशगंगाएँ
प्रकाशमान हैं इसमें
कलापक्ष का निर्वाह करते-करते
यदि भावपक्ष को भुला दिया जाए
तो यह कविता की मृत्यु ही है।
जीवन भी कविता ही है,
जिसमें भाव और कला
दोनों पक्षों का निर्वाह
नितांत आवश्यक है।
दुःखद किन्तु सत्य है;
अपने-अपने स्वार्थपूर्ति के
गणित और व्याकरण
द्वारा सम्बन्धों में
हम प्रायः कलापक्ष का निर्वाह
करते हैं- बड़ी सुंदरता से;
किन्तु भावपक्ष
नितान्त अनाथ होकर
दर-दर भटकता है।
अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए
भिक्षुक की भाँति
दुत्कारा जाता है बार-बार
कभी गालियों से
कभी मारपीट से
कभी शोषण से
सिद्ध करना चाहता है
अपना महत्त्व-
जीवन रूपी कविता में;
किन्तु जब हार जाता है
तो थककर किसी कीचड़ वाली
नाली के किनारे
कूड़े में फेंके गए
भात को उठाकर खा लेता है।
उस समय उसे लज्जा नहीं आती;
क्योंकि कुछ भी करके
अस्तित्व जो बचाना चाहता है।
इसी भात को खाकर सो जाता है
सर्दी की लम्बी रात में
बिना कम्बल, बिना अलाव;
ठिठुरता हुआ रात बिताता है
कभी सड़क तो कभी
सड़क किनारे की बेंच पर
पुलिसवाला उस भावपक्ष को
उठाकर हाँकता है डण्डे से
न जाने कहाँ-कहाँ से चले आते हैं
भिखारी कहीं के।
चलो उठो दफ़ा हो जाओ।
भाव चुपचाप वहाँ से उठकर
चल देता है- अनजाने रास्ते पर।
हम सभी की जीवन-कविता
भटका हुआ भावपक्ष ही है।
हर रात सिकुड़कर बिता रहा
कभी नाली के किनारे
कभी किसी सड़कवाली बेंच पर
ठिठुरते हुए;
आश्चर्य है कि
कोई साथी सुध नहीं लेता
हर रात हम सभी सोचते हैं
कि आज की रात भाव
मर ही जाएगा;
किन्तु सच यह है कि
भाव की जिजीविषा व संघर्ष
अनन्त है; इसलिए वह मरता नहीं।
जीवन कविता में
अनन्त वर्षों से सहेजे गए कलापक्ष के सम्मुख-
इतनी उपेक्षा के उपरांत भी
जीवित रहकर अपने
अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है
और देर से ही सही
थक-हारकर; जीवन कविता का
प्रत्येक रचनाकार
आता है- इसी की शरण में।
फिर भी भावपक्ष को
अपने होने का
कोई घमण्ड नहीं।