भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी कभी सोचता हूँ / राजेश कमल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:33, 6 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेश कमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितना अच्छा होता अगर
यारों के साथ
करता रहता गप्प
और बीत जाता यह जीवन
कितना अच्छा होता अगर
मासूक की आँखों में
पड़ा रहता बेसुध
और बीत जाता यह जीवन
लेकिन
वक़्त ने कुछ और ही तय कर रख्खा था
हमारे जीने मारने का समय
मुंह अँधेरे से रात को
बिछौने पर गिर जाने तक का समय
और कभी-कभी तो उसके बाद भी
की अब याद रहता है सिर्फ़ काम
काम याने जिसके मिलते है दाम
दाम याने हरे-हरे नोट
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दिया पहला प्रेम
कि वर्षों हो गए
उस पुराने शहर को गए
जिसने दी यारों की एक फ़ौज़
और अब तो
भूल गया माँ को भी
जिसने दी यह काया
शर्म आती है ऐसी ज़िन्दगी पर
कि कुत्ते भी पाल ही लेते है पेट अपना
और हमने दुनिया को बेहतर बनाने के लिए
ऐसा कुछ किया भी नहीं
कभी कभी सोंचता हूँ
कितना अच्छा होता अगर दुनियादारी न सीखी होती
अनाड़ी रहता
और बीत जाता यह जीवन