कविता की कला / चेस्लाव मिलोश / श्रीविलास सिंह
मैंने सदा ही आकांक्षा की एक अधिक विस्तृत प्रारूप की
जो हो स्वतंत्र पद्य अथवा गद्य के दावों से
और जो समझने दे हमें एक दूजे को, बिना दिए
लेखक या पाठक को अवर्णनीय पीड़ाएँ।
कविता के मूल तत्व में ही है कुछ अश्लील
लाई जाती है सामने एक ऐसी बात, जो हम नहीं जानते कि हम में है भी,
और हम झपकाते हैं आँखें मानों कूद कर आ गया हो बाहर एक बाघ
और खड़ा हो प्रकाश में, अपनी पूँछ फटकारता।
इसीलिए कहा गया है सच ही कि लिखवाती है कविता कोई दैवीय शक्ति,
यद्यपि अतिशयोक्ति होगा यह स्वीकारना कि उसे होना चाहिए एक फरिश्ता।
मुश्किल है अनुमान करना कि आता है कहाँ से कवि का यह गर्व
जब कि अक्सर वे किये जाते हैं लज्जित उनकी कमजोरियों के खुलासे से।
कौन संजीदा आदमी होना चाहेगा शैतानों की एक बस्ती,
जो व्यवहार करते हैं ऐसा मानों वे हों सामान्य, बोलते हैं अनेक भाषाएँ,
और जो, उसके होंठो और हाथों को चुरा कर संतुष्ट हुए बिना,
लगे होते हैं बदलने में उसकी नियति, अपनी सुविधा हेतु।
यह सच है कि जो है विकृत, आज बहुत क़ीमत है उसकी,
और इसलिए तुम सोच सकते हो कि मैं कर रहा हूँ मज़ाक भर
अथवा मैंने खोज लिया है एक और तरीक़ा
कला की प्रशंसा का, विरोधाभास की मदद से।
था एक वक़्त जब पढ़ी जाती थी सिर्फ़ ज्ञान-पूर्ण पुस्तकें,
जो मदद करती थी सहने में हमारी पीड़ा और दुर्भाग्य।
पर सबके बाद अब यह नहीं है बिलकुल वैसा ही
जैसे पन्ने पलटना मनोचिकित्सालय से ताज़ा निकले हजारों ग्रंथों के।
और फिर भी दुनियाँ है भिन्न उससे, जैसी यह लगती है
और हम हैं उससे अलग जैसा हम अपने को देखते हैं अपनी उन्मत्तता में।
लोग इसीलिए बचाये रखते हैं अपनी ख़ामोश सत्य-निष्ठा
इसलिए पाते हैं सम्मान अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों का।
कविता का है उद्देश्य हमें याद दिलाना कि
कितना है कठिन बस एक व्यक्ति बने रहना,
क्यों कि हमारा घर खुला है और नहीं है दरवाज़ों में चाभियाँ,
और अनदेखे अतिथि आते जाते रहते हैं इच्छानुसार।
मैं सहमत हूँ कि जो मैं कह रहा हूँ यहाँ, नहीं है कविता,
क्योंकि कविता लिखी जानी चाहिए याद कदा, अनिच्छा से,
असहनीय दबाव में और मात्र इस आशा से
कि शुभ आत्माओं ने, न कि बुरी आत्माओं ने, चुना है हमें अपना उपकरण।