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एक बूंद की कहानी / देवेश पथ सारिया

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बर्फ
आसमान से गिरी
एक बड़े से पत्ते पर
और पिघल गयी
पत्ते ही पर

अपनी ही जैसी
पत्ते पर पहले गिरी बर्फ के
पिघलने से बने पानी में
घुलमिल
उसने आकार ले लिया एक बूंद का
और पत्ते की सपाट देह में
ढलान की गुंजाइश पाते ही
पत्ते से नीचे
लुढ़कने चली बूंद

अपनी देह का जितना वजन
सह सकती थी वह
उससे अधिक होते ही
टपक पड़ी धरती पर
टूटकर एक बड़ी सी बूंद में
अब पत्ते पर बची रह गयी
बस नन्ही सी बूंद
जो गिर सकने जितनी वज़नी नहीं थी

फ़िर ऐसा हुआ
कि रूक गया हिमपात
पत्ते पर टिकी बूंद से
ना जुड़ पाया और पानी मिलकर
ना बढ़ पाया उसके अस्तित्व का दायरा
टपकते-टपकते रह गयी
वह नन्हीं बूंद
पत्ते के धरती की ओर समर्पित भाव में झुके
कोने पर

रात भर ठण्ड में
दृढ़ता से टिकी रही एक बूंद
गुरूत्वाकर्षण बल के विरूद्ध
धरती को तरसाते हुए

धरती रही
एक बूंद प्यासी