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कलाकृति / पंकज परिमल
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दुख मुझे छीलता था
और सुख मुझे तराशता था
सुख के सधे हुए हाथ
मुझे गढ़ने में व्यस्त हो गए
उन्होंने मुझे जानवर से आदमी बनाया
मेरे व्यक्तित्व को 'शेप' किया
और मेरे कैरियर को भी
मुझे ऐसी जिंस में तब्दील करते रहे
लगातार
जिसका मण्डी में
उससे कुछ अधिक मूल्य लगाया जा सके
जितना दुख द्वारा लगातार छीले जाने से
गिर गया था
मेरे चेहरे पर चमक थी
शरीर में बाँकपन
आँखों में धूर्तता
वाणी और वाणी में चालाकियाँ
मैं सुख के हाथों गढ़ी हुई
एक बेजोड़ कलाकृति था