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क्रोध / तरुण भटनागर

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होना चाहता काला
जब गुजरता अँधेरा, अँधेरा
बहाता रक्त
लाल के लालच में
थामता
चौराहों पर
न जाने कौन-कौन से रंगों के झंडे
झगड़ता रंगों पर
रंगों के लिए
फिर भी इतना रंगहीन
कि बेदखल
हमारे चित्रों से।
नहीं हमारे आकाश में
उसकी कोई जगह
कितना बेदावा
आवारा चिरंतन।
क्रोध
क्रोध
क्रोध
जलाता बसें
करता तोड़फोड़
दागता गोलियाँ
चीखता, गुर्राता
करता आत्महत्या
कितना यतीम
ढूँढता
कोई नाम
कोई घर
इंसानों के बीच
उनके अपने मोहल्ले में।
अनजान
इस बात से
कि
वह जन्मा है
एक ऐसे देश में
जहाँ वह
हमेशा
आवारा और यतीम ही रहेगा
भटकेगा
अनजान शहरों में
अपरिचित रास्तों पर
बेगानी दुनिया में
करेगा कत्लोगारत, बलात्कार
फिर कोशिश करेगा
पता करने की
कि
कौन था दुश्मन?
कौन था दोस्त?
क्रोध
क्रोध
क्रोध
जो थामता कलम
उठाता कूची
बनाता जाता
अपने ही दोस्तों को दुश्मन
होता जाता
बेआवाज़
अकेला और सनकी।
जितना सच्चा हुआ वह
हुआ उतना ही
रंगहीन
अकेला
यतीम।