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आशंका का गीत / मोहन अम्बर

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दिन रातों के जन्माता आकाश बता दे तू मुझे
मैं कैसे दिन माँंग रहा हूँ ये कैसे दिन आ रहे?
सूरज तपना भूल रहा है, मेघ बरसना भूलते,
पत्तों वाले पेड़ न हिलते, ठूँठ हवा में झूलते,
मौसम की पहिचान असंभव बात यहाँ तक बढ़ गई।
कोयल के ओठों पर ताला कौवे सावन गा रहे,
ये कैसे दिन आ रहे?

नदियाँ बँधना चाह रहीं पर पनघट बहना चाहते,
वाचालों की दर्द कहानी, गूंगे कहना चाहते,
प्यास बिचारी असमंजस में आज समय के कंठ पर।
अमरित का हो रहा अनादर, विष के प्याले भा रहे,
ये कैसे दिन आ रहे?

अनहोनी का शासन चलता यों होनी के गाँव में,
अपने राह नहीं देते तो सपने तम की छाँव में,
आज स्वार्थ की मदिरा पीकर कितना बिगड़ा आदमी,
दिये जलाने के दिन लेकिन दिये बुझाये जा रहे,
ये कैसे दिन आ रहे?

दुनियाँ की कैसी हालत है, हथियारों की होड़ से,
बच्चों पर गांभीर्य झलकता बूढ़े लगे हँसोड़ से,
शांति, सचाई बकरी जैसी, टँगी रक्त बाज़ार में।
चमड़े के व्यापारी मिल कर पश्चाताप जता रहे,
ये कैसे दिन आ रहे?