Last modified on 16 मार्च 2021, at 19:30

उठती हूक/ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:30, 16 मार्च 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

21
हुड़क उठी
बिछुड़े, झील- नैन
पोंछ न सके।
22
पी लिया नीर
उत्तर दिए बिना
शाप ही मिला ।
23
चाँद अकेला
अम्बर से ताकता
झील है दूर ।
24
व्याकुल चाँद
घाटियों में भटका
मिली न झील
25
कौन है क्रूर
विष बोकर चाहे
झील हो दूर ।
26
अरे कुबेर!
सुखाकर मिला क्या
निर्मल झील।
27
लूटी है छाया
झील का मधु -नीर
लू ने सुखाया।
28
न हो उदास
तुम पाओगे चाँद!
झील को पास ।
29
खुला झरोखा
झील पर फिसला
चाँद का मन ।
30
उठती हूक
प्रतीक्षारत झील
प्रिय को ढूँढे ।
31
सिमटी झील
खो गए दो किनारे
बची कीचड़।