भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फागुन के तीर / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:51, 18 मार्च 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन अम्बर |अनुवादक= |संग्रह=सुनो!...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलाता फागुन ऐसे तीर, अबोला टूटा, अब टूटा।
नदी पर सुरखाबों के जोड़, चोंच में डाले बैठे चांेच,
देखकर पनिहारिन को लगा, गये परदेस पिया का सांेच,
शरद भर बाँधा था जो धैर्य, आज वह छूटा अब छूटा,
अबोला टूटा अब टूटा, अबोला टूटा अब टूटा।
बाग के गेंदे और गुलाब, बना कर बैठे ऐसा रूप,
गाँव के अधनंगे शिशु ज्यों कि शिशिर में खाने बैठे धूप,
कंकरी-सी यह उपमा लगी, प्राण घट फूटा अब फूटा,
अबोला टूटा अब टूटा, अबोला टूटा अब टूटा।
वधू के वस्त्रों में है उषा, कुंकुमी हाथ हल्दिया अंग,
सती होती हो जैसे भोर तिमिर पति की अरथी के संग,
दृश्य पर जन-कोलाहल, बना गीति-स्वर रूठा अब रूठा,
अबोला टूटा अब टूटा, अबोला टूटा अब टूटा।