भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होंठों तक आया कई बार / कुमार शिव
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:55, 22 मार्च 2021 का अवतरण
होंठों तक आया कई बार
वाणी तक पहुँच नहीं पाया
वो हुआ कभी भी नहीं व्यक्त !
मेरे मन में जितना कुछ था
वह बिना सुने ही चला गया
अब घिरा बैंगनी सन्नाटा
चुप्पी ने पाया अर्थ नया
यादें पीली हैं बेशुमार
अँजुरी में समा नहीं पाया
सूखी रेती-सा झरा वक़्त ।
पीड़ा बिछोह की महक रही
दुख के पत्ते हो रहे हरे
मौसम के कुछ नीले निशान
नदिया के होंठों पर उभरे
आवेगयुक्त वो आलिंगन
उन्मीलित पलकें सीपों-सी
नस-नस में उबला हुआ रक्त ।