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धरती के तारणहार / कुमार संभव

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सखी ई बैशाखोॅ में भी पिया हमरोॅ,
खेत जोतै लेॅ गेलोॅ छै बहियार।

भोरे उठी पिया बूट ओसैलकै
बोढ़ी-सोढ़ी केॅ भूसोॅ उठैलकै,
फेरू हल के पालोॅ में जलखै बान्ही
धड़फड़ करनें बैलोॅ केॅ टिटकारनें,
गेलोॅ छै जोतै लेॅ खेत-पथार।

तोहें नै आवियो धानी हमरा कहलकै
लू लगी जैथों कहि केॅ समझैलकै,
कलौआ घरोॅ में आवी केॅ हम्में खैवै
दूपहरिया बैलो साथें घरें में बितैबै,
सखी, प्रेम के महिमा अपरमपार।

रौदिये में आवी पिया, दौरी करलकै
साँझ होतै पिया बैलोॅ के खिलैलकै,
कहाँ फुर्सत हुनी तनियो टा पैलकै
रात छाती लगाय आपनोॅ धरम निभैलकै,
किसान रूप में लागै हुनी, धरती के तारणहार।