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मानवता की छावनी / अहिल्या मिश्र

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इतिहास के पन्नों में
साक्ष्य सहित
समय का प्रमाण लिखा है
सभ्यता की नींव की ईंट को
मैंने और तुमने ही मिलकर
जोड़ा था
सजाया था
बसाया था।

पृथ्वी के उबर-खाबर पथरीले
रास्तों को अपने ही तलवों के
मोटे-मोटे छालों से धोया था।
और
चढ़ाए थे आशाओं / अभिलाषाओं
के बेशुमार फूल इस पर
कालचक्र की धूरी पर हमने
समय के देवता को स्थापित किया था।

इतिहास ही गवाह है-
अपने ही नखों से बीच राह में हीं
नोच डाले हैं इसकी आवृत / अनावृत चेहरा

मिट्टी
इससे रौंदे हैं संस्कृति के पुतलों को
अपने ही ठोकरों से उसे
खंडहर बना डालें-
ताकि इन रास्तों का
चेहरा
हमारी अगली आनेवाली
वंश शृंखलाएँ
पहचान भी न सकें।

सुगंधित फूलों को हमने ही तो
बलि भोग में पिरोकर
रक्त गंधा बना दिया है।
जिन फूलों को हमने कभी
संगिनी बना रखा था
उनको ही आज
रक्त गंध जानने को
रक्तहीन अंगों में
चुभो रहे हैं।

ये ही खूनी रंग भरे फूल
अब प्रेम रूपी नाथ
बनने के बदले मानवता रूपी
छावनी में आराम करने पग बढ़ा रहे हैं।

और लाल रंग के
रौंगन से इतिहास के
नए पन्ने लिख रहे हैं।
जहाँ अब कोई
अपना-अपना कहलाने को तैयार नहीं।

मानवता खून के रिश्तों की
छावनी बन गई है।
विलगाव / अनजानापन / परायापन / स्वार्थपन
सिरहाने रखा लालच
आराम कर रहा है।