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एक सुबह का दर्द / मोहन अम्बर

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उड़ी चुनरिया धीरे-धीरे
उस नदिया के तीरे-तीरे
मंत्र भावना फूल चढ़ाती
यंत्र कामना धूल उड़ाती
एक सुबह का दुख बेचारा खींच रहा है चार लकीरें
उड़ी चुनरिया़

धूप सुहानी सोेने जैसी
भोर मगर है रोने जैसी
आज अगर तू अनगाया तो कब गायेगा गीत फकीरे
उड़ी चुनरिया़

एक चुनरिया ही हो जिसकी
लाज करे भी तो वह किसकी
खेत पहुँचना था धो डाली, जल्दी-जल्दी सुखा समीरे
उड़ी चुनरिया़

मिट्टी तोड़ रहा श्रम लेकिन
चिन्ताहीन नहीं कोई दिन
ऐसे तो कैसे सुधरेगी कर्मी की परवश तकदीरें
उड़ी चुनरिया़

लोहा बहुत गरम कर डाला
और लुहारों के मुँह ताला
आजादी की सदी बीसवीं, ऐसे बनवाती जंजीरे
आज अगर तू अनगाया तो कब गायेगा गीत फकीरे
उड़ी चुनरिया़