दुनिया दोरंगी / मोहन अम्बर
यह दुनियाँ ऐसी दुनियाँ है, इसको क्या आख़िर समझाएँ
एक हाथ से आग लगाती है, एक हाथ से आग बुझाए।
दिन सोने के निगल-निगल कर रातें काली नाच रही हैं,
लेकिन जिनकी दृष्टि अभी तक चाँद कहानी बाँच रही हैं,
जो अखियाँ ऐसी अखियाँ हैं, उनको कैसे राह बतायें,
कभी दिये की करें बड़ाई, कभी तिमिर के पाँव धुलाएँ।
ये दुनियाँ ऐसी दुनियाँ है।
द्वार द्वार पर अभिनय मिलता, छलिया ठगिया भावुकता है,
तोल घटाना, मोल बढ़ाना, यही यहाँ की साहुकता है,
जो गलियाँ ऐसी गलियाँ हैं, उनमें कैसे प्यार जगाएँ,
पुष्प जहाँ पर ठोकर खाता, पाप जहाँ सिंहासन पाए।
ये दुनियाँ ऐसी दुनियाँ है।
शूल जहाँ हरकत करते हैं, फूल जहाँ खिलते डरते हैं,
धूल जहाँ प्यासी मर जाती, पेड़ जहाँ हिलते डरते हैं,
जो बगिया ऐसी बगिया है, उसमें कैसे पौध लगायें,
धूप अखरती थी कल जिसको, आज उसे बादल अनभाए।
ये दुनियाँ ऐसी दुनियाँ है।
जुल्म जहाँ खुल कर हँसता है, दर्द जहाँ मुँह ढँक कर सोए,
चोट लगे वह बोल न पाये, घातक अपना रोना रोए,
जो सदियाँ ऐसी सदियाँ है, उसको कैसे अर्घ्य चढ़ाएँ,
झूठ जहाँ निर्णय करती है, सत्य जहाँ दोषी कहलाए।
ये दुनियाँ ऐसी दुनियाँ है।