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फागुन के चार चित्र / मोहन अम्बर

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चली फगुनहट पनघट पनघट
पनघट पनघट चली फगुनहट
नदियाँ ताल जवान हो गए,
दीवारों के कान हो गए।
ऐसी बेसुध देखी सुधियाँ
भर न सकी कोई पनिहारिन
रीते ही रह गये सभी घट।
चली फगुनहट...

नीम अशोक झर गए खुल कर,
लगा कटखना-सा बाबुल घर।
धूल धरा पर लगी लोटने,
व्याही लड़की ज्यों पीहर में
निशि भर जागे करवट करवट
चली फगुनहट...

मन्दिर आज निहाल हो गए
झरे सुमन वरमाल हो गये।
मदन पवन कुछ ऐसा नाचा
भरे कपोलों पर गिर आई
कभी इधर लट कभी उधर लट
चली फगुनहट...

राजनयज्ञों के दृग काजल
देख नहीं पाते हैं दलदल।
हर बेकार तरूण भटका-सा
गली गली में खेल रहा है
खेेल तास का या फिर चित-पट
चली फगुनहट...