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बीस साल पहले की याद / मोहन अम्बर

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आज अचानक मन-बगिया में यादें उग आई
गूँगा बचपन बोल गया तो रोई तरूणाई।
एक किरण देहरी पर आकर ऐसे बैठ गई,
जैसे दूध बेचने वाली बैठा करती थी।
गोरी नंगी भरी पिंडलियों वाली वह लड़की,
भीतर तक आने में मेरी माँ से डरती थी।
लेकिन मैं मज़दूर रात की पाली वाला था,
उसके बहुत जगाने पर भी आँख न खुल पाई।
गूँगा बचपन बोल गया तो रोई तरूणाई॥
भरी दुपहरी सूना पनघट जेठ महीने में,
छाँह नीम की छोड़ धूप में पानी भरती थी।
किये बहाना अमरूदों के काग उड़ाने का,
झूठ-मूठ ही मुझे बुलाने चीखा करती थी।
लेकिन खिड़की खोल न पाई मेरी मर्यादा,
खीज उसी नें पीतल वाली गगरी लुढ़काई।
गूँगा बचपन बोल गया तो रोई तरूणाई॥
पहर तीसरे जब ढ़ोरों को पोखर लाती थी,
गुलमुहरें उसके मुखड़े से शरमा जाती थीं।
मुझे कालिया सम्बोधन वह देती थी लेकिन,
झरने-सी नजरों से मेरा मन धो जाती थी।
जैसे कृष्ण भाग कर मथुरा आया राधा से,
वैसे मैं भी भागा लेकिन संग है परछाई।
गूँगा बचपन बोल गया तो रोई तरूणाई॥
बहुत भुलाता हूँ उसको दिन भर कोलाहल में,
नभ की बेटी संध्या लेकिन सुधि बन जाती है।
सस्ता-सा सौंदर्य प्रसाधन मुँह पर लगवा कर,
ठीक उसी-सी लाल ओढ़नी ओढ़े आती है।
सोचा मन्दिर की घड़ियालें मन बहलायेंगी,
पर उनसे भी पैजनियों की रूनझुन धुन आई।
गूँगा बचपन बोल गया तो रोई तरूणाई॥