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जादुई थैला / लता अग्रवाल

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पिता के पास था
जादुई थैला
निकाल कर जब तब
खुशियाँ बाँट देते थे हमें।

पिता के पास था
जादुई कालीन
जिस पर बैठाकर
पल भर में ले जाते थे
चाँद के पार
परियों के देश में

पिता के पास होती थी
जादुई छड़ी
पल भर में कर देते थे दूर
हमारी सारी तकलीफें

थी पिता के पास
जादुई बाँसुरी
सुनकर जिसका राग
हम खो जाते थे
सपनों की दुनिया में

जादुई थैले के अभाव में
सिमट गई हैं
खुशियाँ तमाम
छिन गया
जादुई कालीन
चाँद को पाना भी हुआ
स्वप्न
समस्याएँ उद्दंड हो
करती है नर्तन आसपास,
न रही बाँसुरी की
मधुर तान
नींद ने खोज ली है
कोई और आँखे
गुम हो गए है सपने।