भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सखी, लागै छै जाड़ / कुमार संभव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:24, 12 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार संभव |अनुवादक= |संग्रह=ऋतुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एैले मनहर शरद
सखी, लागै छै जाड़।

कनकन्नोॅ ई पूसोॅ के महिना
लागै छै ठारोॅ केॅ ठार,
सखी, लागै छै जाड़।

अजगुत शरद ई ज़िया जराबै
दिन के हँसाबै, रात भर कनाबै,
सीतोॅ के रितु ई ऐन्होॅ, काँपै लागलै हाड़
सखी, लागै छै जाड़।

रात अन्हरिया, सखी थरथर काँपौं
साँस भर चलै छै, रहि-रहि के हाँफौं,
केकरा दुख कहियै हम्में, पियवा हमरोॅ ड़ाड़
सखी, लागै छै जाड़।

हमरा मन में नै छै कोनोॅ, सच में राग विराग
अचल रहौं तोरो शरद, सजलोॅ रहौं सुहाग,
हमरो दिन फिरतै सखी, मिलतै प्रेम अपार
सखी, लागै छै जाड़।