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सखी, शिशिर आबी गेलै / कुमार संभव

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सखी, शिशिर आबी गेलै

पत्ता झरलै गाछ-विरिछ के
सखी, शिशिर आबी गेलै।

शरदो के छेकै ई अंतिम रूप
शिशिर लागै बहुत अनूप,
सिरसिर मन्द पवन के बहबोॅ
लागै ऐलोॅ छै बड़का भूप,
ठंडा-गरमी कम-सम होलै
सखी, शिशिर आबी गेलै।

नया-नया जब अंकुर आबै
डाल आम पर मंज़र बोराबै,
कोकिल पंचम गान सुनाबै
अगुआनी ऋतुराजोॅ लेॅ उधियाबै,
कलि कुंज में भौंरा बैठलै
सखी, शिशिर आबी गेलै।

शिशिर के बहुते रूप सुहानोॅ
ठंडा-गरमी एक्के जैसनोॅ,
काम वेग होय छै बलवानोॅ
सखी, सत्य ई कथन पुरानोॅ,
मुग्ध बनी एक दूजा में डुबलै
सखी, शिशिर आबी गेलै।

ठारी पर से जबेॅ नागिन ससरै
बाघोॅ आगू में बाघिन पसरै,
जीव चराचर के मन विहरै
सिंह साथ सिंहनी जब विचरै,
कलि-कलि भी चटकेॅ लगलै
सखी, शिशिर आवी गेलै।

चंदनगंधी हवा के बहवोॅ
कामिनी तन केशर लेपी चलवोॅ,
आँखी के वरवश झुकी-झुकी जैवोॅ
कुंतल केशोॅ के झटकी, झबझब बुलवोॅ,
ऐंगना में आबी कागा गगलै
सखी, शिशिर आबी गेलै।