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आदमी का ज़हर / शंभुनाथ सिंह
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एक जलता शहर
हो गई ज़िन्दगी !
आग का गुलमोहर
हो गई ज़िन्दगी !
हर तरफ हैं अन्धेरी
सुरंगें यहाँ
है भटकती हुई
सिर्फ़ ! रूहें यहाँ
जादुई तलघरों से
गुज़रती हुई
है तिलिस्मी सफ़र
हो गई ज़िन्दगी।
भागकर जाएँ भी
तो कहाँ जाएँ हम
कब तलक यह मिथक
और दुहराएँ हम
है दवा ही न जिसकी
अभी तक बनी
आदमी का ज़हर
हो गई ज़िन्दगी !
जंगलों में सुखी
और ख़ुशहाल था
आदमी नग्न था
पर न कंगाल था
बदबुओं का न
अहसास अब रह गया
सभ्यता का गटर
हो गई ज़िन्दगी !
चान्द-तारे सभी
आज झूठे हुए
हर तरफ घिर उठे
हैं ज़हर के धुएँ
आँख की रोशनी को
बुझाती हुई
रोशनी की लहर
हो गई ज़िन्दगी