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रबर के खिलौने / शंभुनाथ सिंह

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हम रबर के खिलौने
बिकते हैं सुबह-ओ-शाम,
लिख गई अपनी क़िस्मत
शाहज़ादों के नाम ।

कुछ नहीं पास अपने
है नहीं कोई घर,
रहते शो-केस में हम
या कि फुटपाथ पर ।

होने का नाम भर है
मिटना है अपना काम ।

छपते हम पोस्टरों में
बनते हैं हम ख़बर,
बन दरी या गलीचे
बिछते है फ़र्श पर ।

कुर्सियों में दबी ही
उम्र होती तमाम ।

दूर तक चलने वाला
है नहीं कोई साथ,
ताश के हम हैं पत्ते
घूमते हाथों–हाथ ।

हम तो हैं इक्के-दुक्के,
साहब बीबी ग़ुलाम।

रेल के हैं हम डब्बे
खीचता कोई और
छोड़कर ये पटरियाँ
है कहाँ हमको ठौर ।

बन्द सब रास्ते हैं
सारे चक्के हैं जाम ।