दोहे (चुटकी भर चाँदनी) / राजेन्द्र वर्मा
पंचतत्त्व से है बना, यह अनमोल शरीर
इसमें ही बैठा हुआ, पीरों का भी पीर॥
काया माटी-सी चढ़ी, कुम्भकार के चाक।
गीली मिट्टी घूम-फिर, हो जाती है ख़ाक॥
अपनों से तो जीत भी, लगती जैसे हार।
जीत लिया ख़ुद को अगर, जीत लिया संसार॥
हार-जीत के चक्र में, फँसना है बेकार।
क्रीड़ा का आनंद ही, है जीवन का सार॥
सच्चाई की राह में, मिलता है सन्त्रास।
गाँधी खाता गोलियाँ, ईसा चढ़ता क्रास॥
जनगण पर चलते रहे, संकल्पों के तीर।
'जनगण-मन' गाता रहा, लालकि़ला-प्राचीर॥
ऋण की लकुटी टेकता, लोकतंत्र लाचार।
आन-बान के अश्व पर, बैठा भ्रष्टाचार॥
गंगा मैली हो गयी, धोते-धोते मैल।
रेती पर प्यासा खड़ा, शंकरजी का बैल॥
उपनिवेश बनते गये, मिला न सच को ठाँव।
खाते में हैं झूठ के, लिखे हज़ारों गाँव॥
अनबन विश्वामित्र की हुई इन्द्र के साथ।
नदी कर्मनाशा बही, हुआ त्रिशंकु अनाथ॥
कंचन-मृगया के लिए, दौड़े जब रघुबीर।
उसी समय लाँघी गयी, जो थी खिंची लकीर॥
बिना विचारे बढ़ गया, यदि मैत्री का हाथ।
देना पड़ता कर्ण को, दुर्योधन का साथ॥
जीवित रहने का हमें, करना पड़ता यत्न।
वे रहते दरबार में, कहलाते नवरत्न॥
नेता-अफसर जप रहे, लोकतंत्र का मंत्र।
डार-डार है लोक तो, पात-पात है तंत्र॥
आरक्षण-हित चाहिए, जाति-धर्म-पहचान।
फिर कैसे होगी भला, मानव-जाति समान?
हवा चली बदलाव की, बदला हिन्दुस्तान।
अपने ही घर में हुआ, मेज़बान मेहमान॥
दिन-भर कूड़ा बीनकर, जो है थककर चूर।
क्या वह बच्चा देश की, आँखों का है नूर?
जल-संकट है देश का, जलता हुआ सवाल।
मिनरल वाटर बेचकर, बनिया मालामाल॥
नारी का सम्मान है, विज्ञापन में बन्द।
घर आया है राहु के, आज स्वयं ही चन्द॥
टी.वी. की कि़स्मत खुली, व्यापारी के संग।
बिकते हैं बाज़ार में, इन्द्रधनुष के रंग॥
पगले मन! तू ही बता, कहाँ रहें, किस ठाँव।
गज-भर की चादर लिये, मीटर भर के पाँव॥
महानगर भेजे तभी, अपने गाँव प्रणाम।
पत्र लिखे जब ज़िन्दगी, जन्म-मृत्यु के नाम॥
चिड़िया चहकी बाग़ में, आया फिर से बौर।
मगर बाग़ ही कट गया, चिड़िया ढूँढ़े ठौर॥
सभी व्यक्तियों में बहे, एक रंग का ख़ून।
किन्तु धर्म के नाम पर, अलग-अलग क़ानून॥
बड़ी अदालत ने लिखा, अपना बड़ा कृतित्व।
लेकिन कब तय हो सका, राजा का दायित्व?