Last modified on 20 अप्रैल 2021, at 12:51

खालें नहीं बची कहुए में/ रामकिशोर दाहिया

डा० जगदीश व्योम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:51, 20 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामकिशोर दाहिया }} {{KKCatNavgeet}} <poem> रहना...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रहना कठिन
हाल में अपने
सारी राजनीति महुए में

अर्जुन बनते
निर्मम खींची
खालें नहीं बची कहुए१ में

आगी पानी
अंँधड़ झेले
पांँव जमाकर खड़े हुए हैं
जंगल में
चीतल के पीछे
शहर हाथ धो पड़े हुए हैं

छेड़े मुहिम
हवा के उलटे
हिम्मत नहीं किसी बबुए में

जड़ को सपन
दिखाकर साधे
मतलब की है आंँख मिचौनी
परती भूमि
उठा देने में
चालें चलते रहे घिनौनी

लगे उबारें
पीर जतन से
कीलें ठोंक रहे बिंगुए२ में

नई शाख
लाने का चक्कर
टहनी सहित तने को काटा
एक पेड़ के
हिस्से जानें
कितने कई भाग में बांँटा

कोई फर्क
दिखा दे जानें !
शोषित नील पड़े चबुए३ में

टिप्पणी :
१.कहुए-अर्जुन के पेड़।
२.बिंगुए-लकड़ी की मेखें।
३.चबुए-गाल और जबड़े के मध्य का हिस्सा।

       - रामकिशोर दाहिया


-रामकिशोर दाहिया