भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महुआ का मद / उमाकांत मालवीय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:12, 22 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमाकांत मालवीय |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
महुआ का मद
फिर पलाश की आँखों में उतरा ।
यह कैसा गुलाल
वन - वन के
अँग अँग छितरा ।
एक कुँवारी हवा
छिऊल के तन पर लहराती
छाँव, तने से हिरनी
अपना माथा खुजलाती
टेसू के ठसके
क्या कहने
कैसा घम बदरा ।
शोणभद्र के बीच धरी
तहियाई चट्टानें
अठखेलियाँ कर रहीं लहरें
भरती हैं तानें
अँगो की उभरन, सौ नखरे
चलती है इतरा ।
काले कमल सरीखे पत्थर
गोपद बीच खिले
फूलों से ज़्यादा यह सुन्दर
पाहन मुझे मिले
फेनों की उजरौटी
श्यामल पाहन चितकबरा ।