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सील गई धुधुआती आग में / उमाकांत मालवीय

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सील गई धुधुआती आग में
ज्वालाएँ फूटें तो कैैसे ?

घुटनों में सिर छिपे हुए
कुण्ठाओं के निदान है,
कुहरों में गर्क घर हुए
स्थगित हो गए विहान हैं,

आस्था भक्षी अंधी मूरतें
प्रतिमाएँ टूटे तो कैसे ?

भूख प्यास घर -घर रीते
जूठे बासन खँगीरती,
यात्राएँ दिशाहीन हैं
बिके एक-एक सारथी,

बदनीयत करों से भविष्य की
वल्गाएँ छूटे तो कैसे ?
 
पौरुषेय उद्बोधन भी
प्रतिनिधि बन लौट चले हैं,
ऐसे अस्तित्वों की
अनस्तित्व लाख भले हैं,

क़ैद मुट्ठियों में जो हो गईं
उल्काएँ छूटे तो कैसे ?