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मंथन / संजीव 'शशि'

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मन में मंथन चले अनवरत,
क्या हारे, क्या जीते।
हौले-हौले जीवन बीते॥

जो आया है उसको जाना,
ये दुनिया तो आनी-जानी।
समय चाल चलता है अपनी,
फिर भी हम करते मनमानी।
आस लिये मन में अमृत की,
जहर रहे हम पीते।

सुमन सुगंधित मिलें कहाँ से,
नागफनी जब हमने बोयीं।
जीवन भर अपने काँधे पर,
अगनित अभिलाषाएँ ढोयीं।
सुख अपनाया फिर क्यों दुख से,
मुँह मोड़े मनमीते।

पाप-पुण्य की परिभाषा में,
क्यों कर अपना मन उलझाये।
सब कुछ करने वाला ईश्वर,
फिर काहे को हम भरमायें।
प्रेम सुधा से आओ भर लें,
अंतर के घट रीते।