भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छूट गई है खेती-बारी / भाऊराव महंत

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 7 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भाऊराव महंत |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छूट गई है खेती बारी,
नहीं बचा कुछ हाथ।
'होरी' काका 'धनिया' काकी,
बैठ गए फुटपाथ।।

खूब करेगा जीवन रोशन,
चाहा था कुलदीप।
लेकिन वह तो अपने मन का,
बैठा बना महीप।

एक सहारा था 'गोबर' का,
छोड़ा उन्हें अनाथ।।

निश्चित अमरबेल के जैसे,
होता है यह क़र्ज़।
कितनी भी फिर करो दवाई,
बढ़ता जाता मर्ज़।

इसी मर्ज़ ने तो दोनों का,
छोड़ा कभी न साथ।।

खाद-बीज-बिजली-पानी सब,
देती है सरकार।
बदले में फिर उत्पादन भी,
लेती वही डकार।

वही लूटते जिनको 'होरी',
समझे अपना नाथ।।