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छूट गई है खेती-बारी / भाऊराव महंत
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छूट गई है खेती बारी,
नहीं बचा कुछ हाथ।
'होरी' काका 'धनिया' काकी,
बैठ गए फुटपाथ।।
खूब करेगा जीवन रोशन,
चाहा था कुलदीप।
लेकिन वह तो अपने मन का,
बैठा बना महीप।
एक सहारा था 'गोबर' का,
छोड़ा उन्हें अनाथ।।
निश्चित अमरबेल के जैसे,
होता है यह क़र्ज़।
कितनी भी फिर करो दवाई,
बढ़ता जाता मर्ज़।
इसी मर्ज़ ने तो दोनों का,
छोड़ा कभी न साथ।।
खाद-बीज-बिजली-पानी सब,
देती है सरकार।
बदले में फिर उत्पादन भी,
लेती वही डकार।
वही लूटते जिनको 'होरी',
समझे अपना नाथ।।