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तोंद निकल आई / भाऊराव महंत

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तोंद निकल आई।

कभी कोयला,
कभी यूरिया,
कभी घास खाते
तुम तो अपनी
आमदनी से,
ज्यादा ही पाते।

भरा नहीं पर
कभी तुम्हारा,
बड़ा पेट भाई।।

जहाँ मिला
मुँह मार-मारकर,
खाते रहे चने।
इसी तरह तुम
इस दुनिया में,
धन्ना सेठ बने।

देते हो कौड़ी
पर ले-लेते
पाई -पाई।।

ज्ञानवान हो,
तुम्हें पता है,
सब कुछ नश्वर है।
फिर भी लिप्सा-
स्वार्थ-लोभ की,
बनती पिक्चर है।

क्योंकि तुम्हें तो
नित्य चाहिए,
दौलत हरजाई।।