Last modified on 16 जून 2021, at 19:50

समय की धारा / सुदर्शन रत्नाकर

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:50, 16 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुदर्शन रत्नाकर |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम कहते रहे
आओ दोनों बैठें
सागर के किनारे
हाथ में हाथ डाले
एक दूसरे को निहारें या
देखें उगते-डूबते सूर्य की किरणें
सागर के वक्ष पर
पल पल रंग बदलती
उठती-गिरती लहरें
पर मैं अपने मन के,
तुम्हारी इच्छा के पल
कहाँ जी पाई
और उम्र क़तरा-क़तरा कर
गुज़रती गई
कर्तव्य के बोझ तले
दबता रहा प्रेम।
समय तो बदल गया है
अब मैं ढूँढती हूँ तुम्हें
लहरों में
उदय-अस्त होते सूर्य की किरणों में
मंद मंद बहती हवाओं में
नदी के संगीत में
पत्तियों की थिरकन में
ओस की बूँदों में
पर तुम कहीं भी नज़र नहीं आते हो
समय की धारा तुम्हें
बहा कर जो ले गई है।