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देह-विदेह - 1 / विमलेश शर्मा
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रात के आँचल में
जाने कितने पैबंद बदे हैं!
किसी आँख ने उन्हें देह पर पड़े छाले कहा
तो किसी पथिक ने उजास देख
कहा सितारे उन्हें
और यूँही
किसी ने बुद-बुद जुगनू!
रात हँस पड़ी
आसमां तकती हुई,
करवटें बदल-बदल
धरित्री के एक हिस्से पर दिन उगा देख
उँगलियों में आँचल फाँस
वह दक्षिण की ओर चुप चल देती है
पीछे कोई अनहद गूँजता था अविराम
मानो बूझ रहा हो
कि देह भीतर आत्मा यूँही जगमगाती है !