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प्रत्युत्तर / विमलेश शर्मा

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प्रतिस्पर्धा, राग, द्वेष से परे
अग़र मिल सको तो मिलना
मैं सौ बार मिलूँगी

उसी हृदय को लेकर जैसा तुम रखते हो
आख़िर हम तुम एक अंश के ही तो टुकड़े हुए!
मगर चोट तो लगती है न!
आख़िर जड नहीं है साँसों का यह सोता
जो मुझमें तुममें एक-सा बहता है!
पर अग़र ईर्ष्या, कालुष्य घर करे तो
मुझे दूर रखना उनसे
संज्ञा दे देना मुझे शत्रु की
पर मन-चाहना यही एकमेव सदैव
कि मुट्ठी में बँधा हुआ ही सही
बचा रहे
हर जीवन का सत्त्व

और इसीलिए
पश्चाताप कर सको तो लौटना मुझ तक
क्योंकि पश्चात्-ताप
में तप कर ही इस्पात ढलता है

किसी उच्च पर कहना हो तो कह दो कि
मन कुंदन बनता है!
कभी भीतर योंही भावनाएँ जगती हैं पार्थिव
कभी योंही कोई पलाश दहकता है!