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इच्छाएँ यही रहेंगी / प्रतिभा किरण

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इच्छायें यही रहेंगी कि
हरी घास पर चलते हुए
बोझ न बनूँ उन पर

मन को इतना गहरा कर सकूँ कि
ठहर सके उसमें एक ओस की बूँद

किसी अप्रत्याशित घटना की तरह घटूँ
और लिखते-लिखते घट जाऊँ
कलश भर राख होने तक

बचूँ बस इतना सा कि
मेरे शरीर पर मिली प्रत्येक कहानियाँ
घुल जायें बयार में,

शब्दों के पीछे उनके अर्थ की खोल ओढ़े बैठी रहूँ
और दिख जाऊँ थोड़ा सा अर्द्धविराम के आस-पास,

किसी इंजेक्शन में भरी दवा की पहली बूँद सी निकलूँ और चिल्लाकर बोलूँ
हाँ मैंने देख लिया है वायु में छेद

किसी धागे में गाँठ सा दायित्व पाऊँ
अपनी गोलाई के आयतन पर सम्भाल लूँ पूरी सीवन