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कैसे स्वीकार करूँ / सुदर्शन रत्नाकर

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तुम्हारा प्यार धधकती ज्वाला है
जला देगा मुझे
मिटा देगा मेरे अस्तित्व को
मैं, मैं ही नहीं रहूँगी
तुम्हारे साथ मिल कर फूल नहीं
माला कहलाऊँगी
मिल जाऊँगी दूध में पानी की तरह।
स्वतंत्र रहने दो मुझे
खुशबू की तरह
सर्वत्र फैलूँगी
तुम्हारे हिस्से भी आऊँगी।
प्रेम की भाषा कितनी विशाल है
ब्राह्मंड भी बंध जाता है उसमें
फिर मेरी क्या औकात है
मुझे विचरने दो,
धरती और आकाश के बीच
उड़ने दो भावनाओं के पंखों से
प्रेम तो बाँध लेगा
मेरे मन, मेरी आत्मा को।