वो अपने
जिस्म के अहाते में
सैर पर निकले थे
और प्रवासी हो गये
पत्थरीली राहों पे
कुछ नन्हें फूल खिले
कुछ खिलने से पहले ही
बासी हो गये
अपने बदन की, क्यारी में
बोया था जिस माँ ने
वजूद अपना
उन पौदों ने
सब्ज़ आंखों से
अपनी माँ को पुकारा था
और माँ ने
नर्म आंखों से
उन आवाज़ों को
बस अपनी ओर
आते हुये देखा था
कि दोनों आँखों के दरम्याँ
मंज़र बदल गया
ज़िन्दगी रस्ते में छोड़कर
मुसाफ़िर
जाने कहाँ निकल गया॥