भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किरायेदार / पंछी जालौनवी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:16, 24 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंछी जालौनवी |अनुवादक= |संग्रह=दो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम मिज़ाज से
थोड़े ज़िद्दी हैं
और ज़िंदा हैं
या जीने की हमें
इजाज़त मिली हुई है
ख़ुदको हमने
गहन रखा है पहले
एक एक ईंट की
उजरत अदा करते हैं
हर एक दीवार की
क़ीमत चुकानी पड़ती है
तब जाके सर छुपाने को
ये छत मिली हुई है
जीने की इजाज़त मिली हुई है
कुछ ऐसे भी हैं ज़मीं परस्त यहाँ
जो खाते नहीं हैं शिकस्त यहाँ
जो अपनी मर्ज़ी का
फ़लक चुनकर
अपने बादल ख़ुद बनाते हैं
बग़ैर दर-ओ-दीवार के रहते हैं
और समझते हैं
सहूलत मिली हुई है
हालांकि ज़िन्दगी से करके बात
किराये के दिन किराये की रात
रफ़्ता रफ़्ता सब गुज़र जाते हैं
बंद हो जाते हैं
आंखों के रौशनदान
मिल जाता है सबको
ज़ाती मकान॥