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निकल पड़े चींटी के पर / श्रवण कुमार सेठ
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निकल पड़े चींटी के पर
उड़ती है वो फर-फर-फर
दिन भर फूलों पे मडराये
तितली,भौंरों को चिढ़ाये
उड़े गांव वह उड़े शहर
निकल पड़े चींटी के पर
लेकर चीनी के वह दाने
उड़ जाती है पेड़ पे खाने
मौज मनाती है दिन भर
निकल पड़े चींटी के पर
पैरों तले कुचल जाती थी
अक्सर वो मसल जाती थी
उसे नहीं अब इसका डर
निकल पड़े चींटी के पर
सरक के पेड़ के पत्ते से
कल आई है कलकत्ते से
अब सारी दुनिया उसका घर
निकल पड़े चींटी के पर