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वीर रस / हरजीत सिंह 'तुकतुक'

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एक बार हास्य कवि सम्मेलन में,
हमने शृंगार की कविता सुनाई।
तो एक कवियत्री हमारे पास आई।

बोली जब कविता लिखनी नहीं आती है।
तो क्यों कविता पे ज़ुल्म ढ़ाते हो।
मेरी चोटी को भैंस की पूँछ बताते हो।

और यह कविता तुमने किस महूरत में रची है।
मेरी उपमा देने को भैंस ही बची है।

हमने कहा,
मैडम, हमें अभी अभी,
आपके दिमाग़ में बसी ग़लतफ़हमी दिखी है।

यह कविता हमने आप पे नहीं।
भैंस पे लिखी है।