रिमझिम करती हुई
बरसती जब सावनी फुहारें,
कोमल, शीतल और सुखद
संस्पर्श सुधा संचारे।
झंकृत होकर प्राण
मौन ही सुख का रस लेते है,
क्षण भर को संचित
पीडा़एँ सभी त्याग देते हैं।
कभी-कभी क्रोधित होकर
घन घोर नाद करते है,
मेरे मधुर हृदय में
भय अपार भरते हैं।
भीषण उल्कापात मूसलाधार,
पवन के झोंके,
कोमल सरल शरीर
हमारा बोलो कैसे रोके?
छिन्न भिन्न हो जाता क्षण में
सुन्दर मेरा तन-मन,
मेरे लिए काल बन जाता
तूफानों का नर्तन।
वही पवन जो
लोरी गााकर मुझे सुला जाता है,
वही पवन जो
बडे़ सवेरे मुझे जगा जाता है,
वही पवन जो
फूल, और कलियों का जीवन दाता,
क्यों होकर निष्करूण
लूट क्षण मे सब कुछ जाता।
वही मेघ अपने जीवन से
नव जीवन देते हैं,
वही मेघ बिजलियाँ
गिराकर कितना दुख देते है?
यही लोक की रीति
विषय रस को अक्षय करती है,
सुख पाने की इच्छा ही
दुख का निश्चय करती है।
पढ़ी सुनी मैं नहीं,
कर रहा हूँ सब अपनी बीती,
कहने को तो भरी
किन्तु है जीवन गागर रीती।