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काशी / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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महादेव देवाधिदेव से,
रक्षित सदा रही काशी।
घनीभूत-सी पवित्रता है,
पावन वही मही काशी।

भक्ति, मुक्ति अध्यात्म, धर्म
श्रद्धा, निष्ठा की माला-सी।
बसी हुई शिव के त्रिशल पर,
पृथ्वी की प्रतिभा काशी।

जहाँ सत्य की धारा जाकर
शिव में लय हो जाती है,
जहाँ ज्ञान के शुभ्र शिखर पर
मधुर भक्ति मुस्काती है।

गंगा की पावन लहरों में,
जहाँ मन्त्र मज्जन करते।
नहीं मनुज ही पशु-पक्षी भी,
वेदों का वाचन करते।

जहाँ धर्म की ध्वजा फहरती,
रहती नित्य समुन्नत है।
जहाँ कामनाओं की आँधी
शान्त और श्रद्धानत है॥

जहाँ मनुजता के मनोज्ञ
श्रंृगार सँवारे जाते हैं।
जहाँ सभ्यता के सुरम्य
सोपान सहज सुख पाते हैं।

अखिलेश्वर हैं, सर्वेश्वर हैं,
भूतेश्वर हैं, शंकर हैं।
शिव हैं शिव के धाम
वासना विषयों के प्रलयंकर हैं।

है त्रिगुणात्मक त्रिशूल धर्ममय
जिसका मूल दण्ड उज्ज्वल।
धर्मविजय के लिए, धर्म है
एकमात्र शाश्वत सम्बल।

धारे हुए विभूति सार शिव
अंग-अंग में उज्ज्वलता
धर्म वृषभ नन्दी वाहन
हरपल सेवा में रत रहता
 
पुण्यधर्म काशी की धरती पर
विचरण करता हरपल
ज्ञान, भक्ति, वैराग्य कर्म हैं,
जिसके धवलस्तम्भ सबल।

ऐसा सुदृढ़ अनन्य
स्नातम-धर्म भला कैसे झुकता?
जो शिव-तप-सा प्राणवन्त है
पथ पर फिर क्योंकर रुकता?

वशीभूत जिसको न कभी
कर पाते मोह-मदन-माया
उसी सनातन श्रीसंस्कृति की
काशी है अक्षर काया।

प्रणवात्मा है, पंचप्राण हैं-
ज्योतिर्लिंग जहाँ शोभन,
नित्य लोक की प्राणशक्ति का
करत रहते संवर्धन।

पंचानन के ंपंचरुप
काशी को श्रीमण्डित करते
काम, क्रोध, मद, लोभ,
दम्भ, दुर्भाव, द्वेष मन के हरते।

'विश्वनाथ' है नाथ विश्व के
जगती का पालन करते
'श्री अविमुक्त' मुक्ति के दाता
मोह अपार शमन करते

जन्म-मरण के बन्धन सब
शिव क्षण भर में हर लेते हैं।
'कृत्त्विासश्री' महादेव
गति परम सहज ही देते हैं।

जिनके दर्शन से नर से सुर
सुर से सुरपति बन जाता,
'तिलभाण्डेश्वर' साम्बसदा शिव
की महिमा जन-मन गाता।

जिनका आराधन सहस्र
अश्वामेधिक फल का दाता,
उन्हीं 'दशाश्वमेध' पावन से
काशी कुल गरिमा पाता।

पंच दिव्य ज्योतिर्लिंगों का
दर्शन इच्छित फलदायी।
इनकी महिमा शिवपुराण ने
मुक्त कण्ठ से है गायी।

तत्व रूप सब में समान
शिव ज्योतिर्मान सदा रहते
प्राणों में चेतना निरन्तर
नव-अभिनव हैं संचरते।

ज्ञान-शीश, आकाश-केश
निर्मलताओं के कोश-अतुल,
सूर्य-चन्द्र दृग दृष्टि समन्वय
दर्शन का दर्शन उज्ज्वल।

सत्य-धर्म हैं चरण
भुजाएँ युगतट गंगा के पावन
मुख है अग्नि, महान दिव्य
तैजस से परिपूरित आनन।

वाणी जिसकी सामगान है
मधुर मधुर मानो निर्झर
और पुष्ट वैराग्य रूप मन
रहता काशी के अन्तर।

पराशक्ति है नाभि
नाड़ियाँ विविध ज्ञानधाराएँ हैं,
प्राण वायु पावन गंगा
जो हरती भव-बाधाएँ हैं।

हृदय भक्ति है जहाँ
निरन्तर अजपाजप चलता रहता,
भजन रोम हैं अंग-अंग पर
जिससे सुख साधन बनता।

क्रीड़ांगन सुरसरि का शिव का
आँगन रहा सदा से है।
नहीं धार यह तो शिवत्वमय
शिव का स्नेह सदा से है।