भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़ैरतों को ये क्या हो गया / रचना उनियाल
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:55, 30 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रचना उनियाल |अनुवादक= |संग्रह=क़द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ग़ैरतों को ये क्या हो गया।
हमनवा बेवफ़ा हो गया।
पास होते हुए कुछ नहीं,
आदमी दिल जला हो गया।
चाहतें कह रहीं हैं सुनो,
इश्क़ का माजरा हो गया।
ज़िंदगी की गिरह तोड़ना,
रोज़ का क़ायदा हो गया।
खोल क़ानून आँखें कभी,
शक्ल पर क्यों फ़िदा हो गया।
ज़ख़्म अहसास का भूल कर
दर्द का सिलसिला हो गया।
बात ‘रचना’ कहे गर नहीं,
ये अजूबा बड़ा हो गया।