Last modified on 31 अगस्त 2021, at 11:33

तलवारों का शोकगीत / विहाग वैभव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:33, 31 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= विहाग वैभव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कलिंग की तलवारें
लगकर स्पार्टन तलवारों के गले
खूब रोईं इक रोज़ फफक-फफक

हिचकियाँ बाँध तलवारें रोईं
कि उन्होंने मृत्यु भेंट की
कितने ही शानदार जवान लड़कों की
रेशेदार चिकनी गर्दनों पर नंगी दौड़कर
और उनकी प्रेमिकाएँ
किले के मुख्यमार्ग पर खड़ी
बाजुओं पर बाँधे
वादों का काला कपड़ा
पूजती रह गईं अपना-अपना ईश
चूमती रह गईं बेतहाशा
कटी गर्दन के ख़ून सने होंठ

तलवारों ने याद किये अपने-अपने पाप
भीतर तक भर गईं
मृत्यु- बोध से जन्मी अपराध-पीड़ा से

तलवारों ने याद किया
कैसे उस वीर योद्धा के सीने से ख़ून
धुले हुए सिन्दूर की तरह बह निकला था छलक-छलक
और योद्धा की आँखों में दौड़ गई थी
कोई सात-आठ साल की ख़ुश
बाँह फैलाए , दौड़ती पास आती हुई लड़की
दोनों तलवारों ने
विनाश की यन्त्रणा लिए
याद किया सिसकते हुए —

यदि घृणा, बदले और लोभ से सने हाथ
उन्हें मुट्ठियों में कसकर
जबरन न उठाते तो
वे कभी भी
अशुभ और अनिष्ट के लिए
उत्तरदायी न रही होतीं

एक दूसरे की पीठ सहलाती तलवारों ने
सान्त्वना के स्वर में
एक दूसरे को ढाढ़स बँधाया —

तलवारें लोहे की होती हैं
तलवारें ग़ुलाम होती हैं
तलवारें बोल नहीं सकतीं
तलवारें ख़ुद लड़ नहीं सकतीं ।