Last modified on 9 सितम्बर 2021, at 00:33

कविता शिनाख़्त करती है ! / शशिप्रकाश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:33, 9 सितम्बर 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशिप्रकाश |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavi...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

धरती चाक की तरह घूमती है।
ज़िन्दगी को प्याले की तरह
गढ़ता है समय ।
धूप में सुखाता है ।

दुख को पीते हैं हम
चुपचाप ।
शोरगुल में मौज-मस्ती का जाम ।
प्याला छलकता है ।

कुछ दुख और कुछ सुख
आत्मा का सफ़ेद मेज़पोश
भिगो देते हैं ।

कल समय धो डालेगा
सूखे हुए धब्बों को ।
कुछ हल्के निशान
फिर भी बचे रहेंगे ।

स्मृतियाँ
अद्भुत ढँग से
हमें आने वाली दुनिया तक
लेकर जाएँगी ।

(दिसम्बर, 1997)