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धूमिल के लिए / रमेश रंजक
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यहाँ झरने लगे हैं फूल अपने वक़्त से पहले
मिली है ज़िन्दगी जितनी उसी में दास्ताँ कहले !
पता कुछ भी नहीं है, इस घुटन के दौर में प्यारे !
तनावों की जकड़बन्दी, किसे, किस ठौर दे मारे
सुरंगें बन्द हैं – सारी उमर परकैंच है पगले !
मिली है ज़िन्दगी जितनी उसी में दास्ताँ कहले
यहाँ झरने लगे हैं फूल अपने वक़्त से पहले !
हमारे साथ के, चालीस तक भी रह नहीं पाए
समय की क़ातिलाना मार कह नहीं पाए
मिले जो सांस कहने को उसे अच्छि तरह गह ले !
यहाँ झरने लगे हैं फूल अपने वक़्त से पहले
मिली है ज़िन्दगी जितनी उसी में दास्ताँ कहले !