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शाहीन बाग की औरतें / मृदुला सिंह
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शाहीन बाग की औरतें बिकाऊ नहीं
ये पितृसत्ता के भय का विस्तार हैं
मुक्ति का यह गीत बनने में
सदियाँ लगीं है
अब जान गईं हैं, जाग गई हैं
जाने कितने शाहीन बाग खिलेंगे अब
ये रास्ते हैं भविष्य का
यह मुखरता
लोकतंत्र की अभिव्यक्तियाँ हैं
इन औरतों ने
आँचल को बना लिया है परचम
और लहरा दिया है पीढ़ियों के हक में
सीखा है यह प्रतिरोध
चूल्हे की मध्यम आंच पर
भात पकाते पकाते
ये बिकाऊ नहीं हैं
ये जातियाँ नहीं हैं
ये साधनारत समूह हैं
इतिहास बनाती ये औरतें
निर्बंध नदी की धार की ध्वनियाँ हैं
ये मनुष्यता के पक्ष का
जीवित प्रमाण हैं
सीखें इनसे इंसान होनें का मंत्र
ताकि बचा रहे
हमारी नसों का नमक पानी