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रक्त और पसीना / मृदुला सिंह

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कुलीनता की पताकाओं के नीचे
सिरजा है पुरखों ने
आन बान शान की परंपरा
सोचती हूँ ये पताकाएँ सिलता कौन होगा
इनके रक्षा कवचों पर विरचित
तिकोना चिह्न किसका मौन है

स्कूल को दूर से नमन करने वाला चुन्नी
भैंस की पीठ पर क्या लिखता होगा
सूरज की लाली से पहले आकर
बखरी बुहारने वाला देवशरण
सौ गज की दूरी पर
अपना गमछा-पनही क्यों रखता था
क्यों न चीन्हा गया
उसके मेहनतकश हाथो से
अनाजों के सुनहरे रंग में
सिरजा गया खेतों का वितान

सभ्यता के विकास में
वह मुख्य धुरी है
उसके गिर्द घूमती है पूरी दुनिया
फिर भी नकारा गया है
श्रम का इतिहास
कहते है पुरखो का किया
पीढियाँ चुकाती हैं मोल

कैसे चुकाऊँ कहाँ से लाऊँ
कागद कलम कैसे लिखूं फिर कि
इतिहास की कुलीनता का रक्त
जो हमारी धमनियों में बहता है
वह तुम्हारे पसीने से कम गाढ़ा क्यो है